Friday, May 9, 2025
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लालू-नीतीश का दौर: छह चुनावों से बिहार में क्षेत्रीय दलों का दबदबा, 1990 से राष्ट्रीय दलों का कैसा प्रदर्शन?

सार

बिहार चुनाव से जुड़ी हमारी विशेष सीरीज ‘बात चुनाव की’ में आज इन्ही क्षेत्रीय दलों के दबदबे की बात करेंगे। आखिर बिहार में क्षेत्रीय दलों का दबदबा कहां से शुरू होता है? कांग्रेस का प्रभाव कैसे कमजोर हो गया? राजद और जदयू किस तरह बिहार के चुनावी पटल पर स्थापित हो गईं? 1990 से लेकर 2020 तक चुनावों में किस दल की क्या स्थिति रही? आइये जानते हैं…

विस्तार


बिहार में इस साल के अंत में चुनाव होने हैं। इसे लेकर जदयू से लेकर राजद और भाजपा से लेकर कांग्रेस तक ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। बिहार की इस सियासत में गठबंधन की राजनीति की बड़ी भूमिका रही है। यहां राष्ट्रीय के साथ क्षेत्रीय दलों की पैठ लंबे समय से है। आलम यह है कि बिहार में आखिरी बार किसी दल की अकेले दम पर सत्ता 1985 के चुनाव में आई थी। इसके बाद से हुए अगले आठ चुनावों में गठबंधन की ही सरकार बनी है। गठबंधन के इस दौर में क्षेत्रीय दलों का रसूख भी लगातार बढ़ा है।

बिहार चुनाव से जुड़ी हमारी विशेष सीरीज ‘बात चुनाव की’ में आज इन्ही क्षेत्रीय दलों के दबदबे की बात करेंगे। आखिर बिहार में क्षेत्रीय दलों का दबदबा कहां से शुरू होता है? कांग्रेस का प्रभाव कैसे कमजोर हो गया? राजद और जदयू किस तरह बिहार के चुनावी पटल पर स्थापित हो गईं? 1990 से लेकर 2020 तक चुनावों में किस दल की क्या स्थिति रही? आइये जानते हैं…

लालू यादव और नीतीश कुमार

1990: बिहार की सिसायत में लालू-नीतीश के जलवे की शुरुआत
1988 में कई दलों के विलय से जनता दल बना। 1990 के चुनाव में जनता दल 122 सीटें जीतकर सबसे बड़ा दल बना। भाजपा के समर्थन से सत्ता में आया और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। पहली बार किसी गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा किया। 1990 का चुनाव इस लिहाज से भी अहम रहा कि इनके बाद राज्य में एक कार्यकाल में कई मुख्यमंत्रियों का दौर खत्म हो गया। लालू 1995 तक बेरोकटोक सरकार चलाने में भी सफल रहे।

हालांकि, इसी दौर में राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर जनता दल का कमजोर होना शुरू हुआ। 1994 में नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस जनता दल से अलग हुए और समता पार्टी बनाई। आरोप था कि लालू प्रसाद यादव बिहार में वोटबैंक की राजनीति कर रहे हैं।

1995: जनता दल की टूट के बावजूद मजबूत रहे लालू

  • 1995 के चुनाव में भले ही नीतीश और लालू साथ नहीं थे, लेकिन दोनों की अलग-अलग पार्टियां अभी भी अस्तित्व में नहीं थीं। लालू ने जनता दल का नेतृत्व जारी रखा और 167 सीटों पर फिर जीत हासिल की। इस चुनाव में भाजपा को 41 सीट और कांग्रेस को 29 सीटें मिलीं। समता पार्टी को सात और झामुमो को 10 सीट मिलीं।
  • लालू प्रसाद यादव एक बार फिर मुख्यमंत्री बने। हालांकि, 1997 आते-आते लालू पर चारा घोटाले के आरोप लगे और उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा। लालू ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी के हाथ में सत्ता सौंप दी। इसी दौर में लालू ने अपना अलग राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बनाया। इसके बाद बिहार की सियासत में क्षेत्रीय दलों का दबदबा कायम है।

    2000 से 2020: बिहार में क्षेत्रीय दल ही बने किंग या किंगमेकर
    साल 2000 से लेकर 2020 तक बिहार में छह विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। हर बार यहां क्षेत्रीय दल ही प्रमुख रहे हैं।

    2000: बिहार में आई राजद, शुरू हुआ क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा
    बिहार में साल 2000 का चुनाव मार्च में हुआ था। गौर करने वाली बात यह है कि तब तक बिहार से झारखंड अलग नहीं हुआ था। इस चुनाव में भी राजद मजबूती से उभरी। उसने 324 में से 293 सीटों पर चुनाव लड़ा और 124 सीटें जीतीं। पार्टी बहुमत से दूर रह गई। दूसरी तरफ भाजपा को इस चुनाव में बढ़त मिली और उसे 168 में से 67 सीटें मिलीं। नीतीश कुमार की समता पार्टी 34 सीट और कांग्रेस 23 सीटें जीतने में सफल रही।

    क्षेत्रीय दलों के लिहाज से 1999 और 2000 अहम रहा। बिहार में जनता दल पूरी तरह से खत्म होने की कगार पर था। दरअसल, रामविलास पासवान अलग होकर लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) बना चुके थे। वहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी जनता दल का अंत करीब आ गया। बिहार में शरद यादव ने जनता दल का नेतृत्व किया, लेकिन यह पार्टी राष्ट्रीय तो छोड़िए, क्षेत्रीय स्तर पर भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी।

नीतीश कुमार का उदय, और मजबूत हुई क्षेत्रीय दलों की विरासत
2000 में खंडित जनादेश के चलते सरकार बनाने की जंग छिड़ गई। नीतीश कुमार ने अपनी समता पार्टी के लिए भाजपा और अन्य दलों के गठबंधन के जरिए पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। हालांकि, उनके पास कुल-मिलाकर भी महज 151 विधायकों का ही समर्थन था, जो कि बहुमत के आंकड़े 163 से कम ही था। इसके चलते नीतीश को 7 दिन में ही अपना पद छोड़ना पड़ा। बिहार की कमान एक बार फिर राजद के हाथों में आ गई और लालू के जोड़-तोड़ की बदौलत राबड़ी देवी फिर मुख्यमंत्री बनीं।

2005 के विधानसभा चुनाव
(i) फरवरी 2005
बिहार में फरवरी 2005 में फिर चुनाव हुए। यह पहले चुनाव थे, जब झारखंड अलग राज्य बन चुका था और बिहार में कुल सीटों की संख्या 243 पर आ चुकी थी। राजद ने 215 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन उसे 75 सीटें मिलीं। एनडीए गठबंधन में लड़ रही जदयू ने 138 सीटों पर चुनाव लड़ा, वह 55 सीटें हासिल कर सका। 103 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा को 37 सीटें मिलीं। इस तरह 92 सीटें जीतने वाला एनडीए भी बहुमत से दूर रह गया। इस चुनाव में 29 सीट पाने वाली लोजपा भी प्रमुख क्षेत्रीय दल के तौर पर उभरी। लेकिन गठबंधन की कोशिशें सफल नहीं हुईं और आखिरकार बिहार में अक्तूबर में फिर चुनाव हुए।

(ii) अक्तूबर 2005
महज सात महीने बाद हुए चुनाव में एक और क्षेत्रीय दल का जबरदस्त उभार हुआ। यह था- जनता दल (यूनाइटेड), जो कि नीतीश कुमार की समता पार्टी और शरद यादव के जनता दल के विलय के बाद बना। इस पार्टी ने एनडीए के साथ लड़ते हुए 88 सीटें हासिल कीं, वहीं भाजपा 55 सीटें पाने में कामयाब रही। यानी क्षेत्रीय दल किंग और राष्ट्रीय पार्टी बनी किंगमेकर। नीतीश कुमार बने राज्य के मुख्यमंत्री। राजद इस चुनाव में 54 सीटें ही जीत सका। लोजपा 10 और कांग्रेस सिर्फ 9 सीटें हासिल कर पाई।

2010: फिर क्षेत्रीय दल का दबदबा, राष्ट्रीय दल बना सहायक
2010 के चुनाव में नीतीश को अपनी योजनाओं जबरदस्त फायदा हुआ। जदयू और भाजपा गठबंधन 243 में से 206 सीटें जीतने में सफल रहा। एनडीए का वोट प्रतिशत भी करीब 40 फीसदी तक पहुंच गया। 141 सीटों पर चुनाव लड़ा जदयू 115 सीटों पर जीतने में सफल रहा। वहीं, 102 सीटों पर चुनाव लड़ी भाजपा को 91 सीटों पर जीत मिली। दूसरी तरफ लालू का राजद महज 22 सीट पर सिमट गया। कांग्रेस को महज चार सीटें तो लोजपा को तीन सीटें मिलीं।

2015: दो क्षेत्रीय दल साथ आए, राष्ट्रीय दल अलग पहचान नहीं बना पाए
2015 के विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश और लालू दशकों बाद साथ आए। जदयू-राजद-कांग्रेस ने मिलकर महागठबंधन बनाया। इस गठबंधन ने 243 में से 178 सीटें हासिल कीं। राजद-जदयू ने बराबर 101-101 सीटें बांटीं, वहीं कांग्रेस को 41 सीटें मिलीं। जहां राजद 80 सीट जीतकर सबसे बड़ा दल बना। जदयू को 71 सीटें मिलीं। राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस 27 सीट जीतने में सफल रही। नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बने। वहीं, लालू यादव के दोनों बेटे उनकी कैबिनेट का हिस्सा बने। लालू के छोटे बेटे तेजस्वी को डिप्टी सीएम बनाया गया।

एनडीए को 58 सीटों से संतोष करना पड़ा। राष्ट्रीय पार्टी भाजपा ने एनडीए का नेतृत्व जरूर किया, लेकिन क्षेत्रीय दलों की चमक के आगे उसे सिर्फ 53 सीटें मिलीं। लोजपा और रालोसपा को दो-दो और जीतनराम मांझी की हिंदुस्तानी आवामी मोर्चा (हम) को एक सीट ही मिली। लेफ्ट फ्रंट को सिर्फ तीन सीटें ही मिलीं। दूसरी ओर सपा, राकांपा, जाप जैसी पार्टियों का सोशलिस्ट सेक्युलर मोर्चा एक भी सीट नहीं जीत सका। तीन निर्दलीय भी जीतने में सफल हुए।

नीतीश कुमार ने 2017 के मध्य में भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे लालू परिवार से खफा होकर राजद से गठबंधन तोड़ दिया और भाजपा के समर्थन से फिर मुख्यमंत्री बन गए। यानी एक बार फिर क्षेत्रीय दल किंग बना और राष्ट्रीय पार्टी बनी किंगमेकर।

2020: नीतीश की सीटें घटीं, लेकिन क्षेत्रीय दल ही रहा राजा
बिहार में क्षेत्रीय दलों की राजनीति पर पकड़ किस कदम मजबूत है, इसका एक उदाहरण 2020 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला। जब एनडीए में शामिल जदयू महज 43 सीट ही जीत पाई, जबकि राष्ट्रीय दल भाजपा को 74 सीटें मिलीं। इसके बावजूद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बने। यानी एक बार फिर कम सीट पाकर भी क्षेत्रीय दल बना किंग और ज्यादा सीट हासिल करने के बावजूद राष्ट्रीय दल किंगमेकर बना।

इस चुनाव में महागठबंधन को 110 सीटें मिलीं। राजद को 75, कांग्रेस को 19, भाकपा-माले को 12, भाकपा को 2 और माकपा को 2 सीटें मिलीं। यानी विपक्षी गठबंधन में एक क्षेत्रीय दल सबसे बड़ी पार्टी बनी और राष्ट्रीय दल का प्रदर्शन एक बार फिर खराब रहा।

राष्ट्रीय दल कभी हासिल नहीं कर पाए किसी क्षेत्रीय दल से ज्यादा सीटें
बिहार में क्षेत्रीय दलों का दौर शुरू होने के बाद से ही राष्ट्रीय दल कभी भी उनसे आगे नहीं निकल पाए। यानी वजह रही कि बिहार में हमेशा स्थानीय पार्टियों के ही मुख्यमंत्री बने हैं। बिहार में भाजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 91 सीट हासिल करने का है, जो उसे 2010 के विधानसभा चुनावों में मिलीं। लेकिन इसी चुनाव में उसके साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही जदयू को 115 सीटें हासिल हुई थीं। इसी तरह 2020 में भले ही भाजपा ने 74 सीटें हासिल कर लीं, लेकिन राजद 75 सीटें पाकर सबसे बड़ा दल बना और बिहार की राजनीति में क्षेत्रीय दल का दबदबा कायम रखा।

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