Wednesday, May 21, 2025
Homeदेशबिहार के महाकांड: जब मजदूरी में 32 रुपये मांगना बना था नरसंहार...

बिहार के महाकांड: जब मजदूरी में 32 रुपये मांगना बना था नरसंहार की वजह, नवजात से लेकर गर्भवती तक हुए शिकार

सार

बथानी टोला हत्याकांड क्या था, इस हत्याकांड की पृष्ठभूमि क्या थी? बथानी टोला नरसंहार में किसने-किसे निशाना बनाया? इस मामले में कोर्ट में कब क्या हुआ? ‘बिहार के महाकांड’ सीरीज की तीसरी कड़ी में आज इसी बथानी टोला हत्याकांड की कहानी…

विस्तार

बिहार में 1977 के बेलछी हत्याकांड दलितों के खिलाफ उस दौर की सबसे भयानक घटना कही जाती है। इस घटना का असर ऐसा था कि जनता सरकार देखते ही देखते अलोकप्रिय हो गई और इंदिरा गांधी के हाथी पर सवारी के एक कदम ने राष्ट्रीय राजनीति में उनकी वापसी कराई। 17 साल बाद राज्य में एक बार फिर इसी तरह का मामला सामने आया। ये पूरा घटनाक्रम और ज्यादा डरावना था। यह हत्याकांड भोजपुर जिले के बथानी टोला में हुआ था।

आखिर बथानी टोला हत्याकांड क्या था, इस हत्याकांड की पृष्ठभूमि क्या थी? बथानी टोला नरसंहार में किसने-किसे निशाना बनाया? इस मामले में कोर्ट में कब क्या हुआ? ‘बिहार के महाकांड’ सीरीज की तीसरी कड़ी में आज इसी बथानी टोला हत्याकांड की कहानी…

क्या है बथानी टोला हत्याकांड की पृष्ठभूमि?
अरुण सिन्हा की 2011 में आई किताब ‘नीतीश कुमार एंड द राइज ऑफ बिहार’ के मुताबिक, 1970 के दशक में बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और समरस समाज पार्टी (एसएसपी) ने पहुंच बनाई तो यहां का सामाजिक ताना-बाना धीरे-धीरे बदलने लगा। इन पार्टियों के नेतृत्व में 1970 के मध्य तक मजदूरों के तबके ने उच्च जातियों से आने वाले जमींदारों और जमीन पर कब्जा करने वालों के खिलाफ आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी। इसके चलते एक खूनी संघर्ष की शुरुआत हुई। इसी चिंगारी के चलते 1977 में बेलछी हत्याकांड हुआ, जिसमें गांव में घुसकर कई दलितों को मौत के घाट उतार दिया गया था।

1996 के बथानी टोला नरसंहार से पहले का घटनाक्रम भी काफी हद तक 1970 के दशक जैसा ही था। दरअसल, हुआ कुछ यूं कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) यानी भाकपा-माले ने सैकड़ों की संख्या में मजदूरों को एकजुट किया और मांग उठाई कि उच्च जाति के बड़ी जोत वाले किसान और जमींदार उन्हें कम से कम न्यूनतम आय तो मुहैया कराएं ही। उस दौरान खेतीहर मजदूर प्रतिदिन 25 रुपये या दो किलोग्राम चावल के लिए काम करते थे। महिलाओं और भी कम मेहनताना मिलता था।

उस दौर में सरकार ने मजदूरों के लिए न्यूनतम मेहनताना 32 रुपये तय किया था। हालांकि, जमींदारों और बड़े किसानों ने मुख्यतः दलित और पिछड़े समाज से आने वाले इन मजदूरों की मेहनताना बढ़ाने की मांग को अनसुना कर दिया। भाकपा-माले ने पहले ही ऐसे किसानों को एकजुट करना जारी रखा। मजदूर एकजुट हुए और काम से इनकार करने लगे। यह बात उच्च जाति के जमींदारों को पसंद नहीं आई और आगे जो कुछ हुआ, वही बथानी टोला नरसंहार के तौर पर जाना गया।

बथानी टोला का जातीय गणित कैसा था?
बिहार के भोजपुर जिले में एक गांव है। नाम है बड़की खरांव, जहां 1996 के करीब 400 घर हुआ करते थे। यहां बड़ी संख्या में भूमिहार और राजपूत जैसी उच्च जातियां रही हैं और जमीन का मालिकाना हक भी इन्हीं के पास है। दोनों जाति के लोगों के तब गांव में 60-60 घर हुआ करते थे।

गांव में राजपूतों और भूमिहारों की संख्या दलितों के मुकाबले कम थी। इसके बावजूद इन उच्च जातियों का पूरे क्षेत्र में वर्चस्व रहा। राजपूत-भूमिहारों के अलावा मुस्लिम (35 घर), यादव (25 घर), कोइरी (20 घर) भी गांव का हिस्सा रहे। इस गांव के राजपूतों और भूमिहारों के पास जमीन का एक बड़ा हिस्सा था।

नरसंहार की चिंगारी किस घटना से भड़की?

फरवरी 1996
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में बेला भाटिया के लेख- ‘जस्टिस नॉट वेनजेएंस: द बथानी टोला मसैकर एंड रणवीर सेना इन बिहार’ में पीड़ितों के हवाले बताया गया कि पहले उनके भूमिहारों और राजपूतों से संबंध ठीक थे। लेकिन 1994 में जब मजदूरों ने न्यूनतम वेतन की मांग करते हुए पूरी तरह काम ठप करने का एलान कर दिया तो बड़े किसानों और जमींदारों का गुस्सा भड़क उठा। प्रशासन ने किसी तरह इस टकराव को कम कराया। लेकिन तब तक तनाव के बीज बोए जा चुके थे।

आरोप लगा कि जमींदारों ने करीब 25-30 एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया है। इसमें इमामबाड़ा और करबला से जुड़ी 1.5 एकड़ जमीन भी शामिल थी। बताया जाता है कि इसके चलते जातीय तनाव में धार्मिक कोण भी जुड़ गया, क्योंकि इलाके के मुस्लिमों ने इसका विरोध किया। इस पूरे घटनाक्रम में आग में घी का काम किया फरवरी 1996 में भाकपा-माले के करबला मुक्ति मार्च ने, जिसमें बड़की खरांव गांव के उच्च जाति के दो लोगों की मौत हो गई। बताया जाता है कि इस घटना के बाद से ही पूरे गांव में माहौल तनावपूर्ण हो गया।

24 अप्रैल 1996
बड़की खरांव गांव के करीब ही धनचुआ गांव में गणेरी जाति के ज्ञानचंद भगत का शव खेतों में मिला। इस घटना को अंजाम देने का आरोप बड़की खरांव के ही जितेंद्र ओझा और अजय सिंह पर लगा। गांववालों के मुताबिक, इसी रात रणवीर सेना की एक बैठक हुई। अगले दिन गांव में सुल्तान मियां नाम के एक शख्स की हत्या हो गई। आरोप एक बार फिर राजपूत समाज से आने वाले अजय सिंह और उसकी जाति के पांच लोगों पर लगा। इस घटना के बाद सुल्तान की लाश को लाना मुस्लिम समुदाय के लिए मुश्किल हो गया। नईमुद्दीन के एक शख्स ने हिम्मत कर सुल्तान का शव उसके घर पहुंचाया। हालांकि, सभी 35 मुस्लिम परिवारों को समझ आ चुका था कि राजपूतों का हमला उन पर कभी भी हो सकता है। ऐसे में इन सभी मुस्लिमों ने बथानी टोला में पनाह ले ली। बथानी टोला को उस दौरान भाकपा-माले का मजबूत गढ़ कहा जाता था।

मानवाधिकार मामलों की अंतरराष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच के मुताबिक, अप्रैल 1995 से 11 जुलाई 1996 (जिस तारीख को बथानी टोला में नरसंहार की घटना हुई) तब तक भोजपुर में रणवीर सेना और भाकपा-माले के बीच संघर्ष में 46 लोगों की जान जा चुकी थी।

बथानी टोला में कैसे हुआ नरसंहार? 
मोहम्मद सुल्तान का शव लाने गया नईमुद्दीन जमींदारों की आंख में चुभने लगा था। इसके बाद जमींदारों ने रणवीर सेना से संपर्क किया और बथानी टोला पर हमले की तैयारी हुई। उच्च जातियों के गुस्से की भनक बथानी टोला के लोगों को लग चुकी थी और इसी वजह से जिला प्रशासन को रणवीर सेना की साजिश को लेकर जानकारी दी गई। पुलिस ने कुछ चौकियां भी लगाईं।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments